Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


77. प्रसेनजित् का निष्कासन : वैशाली की नगरवधू


जैतवन से महाराज प्रसेनजित् ने लौटकर देखा, नगरद्वार पर भारी अवरोध उपरोध उपस्थित है। सेनापति कारायण नग्न खड्ग लेकर राजा के सम्मुख आए। राजा ने उन्हें देखकर कहा - “ यह क्या बात है कारायण ? मैंने तुम्हें बन्दी किया था , किसने तुम्हें मुक्त किया ? ”

“ कोसल के अधिपति ने। ”

“ कोसल का अधिपति मैं हूं। मैंने तुझे मुक्त नहीं किया । ”राजा ने क्रोध से लाल लाल आंखें करके कहा ।

“ आप जैसा समझें। ”

“ तेरी यहां उपस्थिति का क्या कारण है ? ”

“ मैं आपको बन्दी करने के निमित्त यहां उपस्थित हूं ? ”

“ किसकी आज्ञा से ?

“ कोसल के अधिपति महाराज विदूडभ की आज्ञा से । ”

“ तेरा इतना साहस ? वंचक , कुटिल , मैं अभी तेरा शिरच्छेद करूंगा। ”राजा ने खड्ग कोश से खींच लिया ।

“ तो महाराज प्रसेनजित् , आप यदि इसी समय मृत्यु को वरण किया चाहते हैं तो आपकी इच्छा! आइए इधर। ”कारायण ने मैदान की ओर खड्ग से संकेत किया !

राजा ने क्रोध से कांपते हुए सैनिकों को आज्ञा दी – “ सैनिको , इस वंचक को बन्दी करो। ”

किन्तु सब सैनिक चुपचाप सिर झुकाकर खड़े हो गए । यह देखकर राजा का हृदय भय से दहल उठा । वह कांपते हुए हाथों में खड्ग लिए काष्ठप्रतिमा के समान खड़े रह गए।

कारायण ने हंसकर कहा - “ महाराज प्रसेनजित् , विरोध- प्रदर्शन से कोई लाभ नहीं । चुपचाप महाराज विदूडभ की आज्ञा शिरोधार्य कीजिए। ”

“ कैसी भाग्य -विडम्बना है! क्या मैं नगर में नहीं जा सकता ? ”

“ नहीं । ”

“ तेरे महाराज - उस दासी - पुत्र की क्या आज्ञा है रे ? ”

“ यही कि यदि आप चुपचाप बन्दी होना स्वीकार कर लें तो आपको प्राणदान दे दिया जाय। ”

“ और यदि मैं न स्वीकार करूं ... ? ”

“ तो महाराज की आज्ञा है कि आपका वध करके आपके शरीर के चार टुकड़े करके नगर की चारों दिशाओं में बलि -पिण्ड की भांति फेंक दिए जाएं । ”

राजा की आंखों से आंसू ढलकने लगे। उन्होंने हाथ का खड्ग पृथ्वी पर फेंक दिया , कण्ठ की मौक्तिक - माला तोड़कर उसके दाने धूल में बिखेर दिए। सिर का उष्णीष टुकड़े टुकड़े करके फेंक दिया । फिर कहा - “ तो धृष्ट भाकुटिक सेनापति , तू अपने वृद्ध असहाय राजा से जैसा व्यवहार करना चाहता है , कर । ”

“ तो महाराज प्रसेनजित्, आप अपने सेवकों सहित आगे बढ़कर मेरे इन सैनिकों के बीच में आ जाएं । ”

महाराज चुपचाप सैनिकों के मध्य में जा खड़े हुए । देवी मल्लिका भी चुपचाप राजा के साथ जा खड़ी हुईं । अनुगमन करती हुईं दासियों को निवारण करते हुए उन्होंने कहा - “ हज्जे , ऐसा ही काल उपस्थित हुआ है। तुम महालय में लौट जाओ और अपने राजा की सेवा करो। मुझे तुम्हारी सेवाओं की आवश्यकता नहीं रही । ”इतना कहकर उन्होंने अपने सब रत्नाभूषण उन्हें बांट दिए । दासियां खड़ी हो रोने लगीं ।

कारायण ने आगे बढ़कर कहा - “ पट्टराजमहिषी के चरणों में महाराज विदूडभ ने यह निवेदन किया है कि वे महालय में पधारकर अपने अनुगत पुत्र को आप्यायित करें । ”

“ पुत्र विदूडभ ने यह अपने योग्य ही कहा , भन्ते सेनापति ! पर मुझे अपना कर्तव्य विदित है । जहां महाराज , वहां मैं । पुत्र विदूडभ से कहना - वह कोसल के यशस्वी आर्यकुल की मर्यादा की रक्षा करें । मैं आशीर्वाद देती हूं - वह यशस्वी हो , वर्चस्वी हो , चिरंजीवी हो ! ” राजा ने भी अपने आभरण सेवकों के ऊपर फेंकते हुए कहा - “ भणे, तुम्हारा कल्याण हो । तुम राजसेवक हो । तुमने राजा की सेवा जीवन - भर की । अब यह प्रसेनजित् राजा नहीं रहा , तो उसका सेवकों से क्या काम ? तुम्हारा कल्याण हो । जाओ, राजा की सेवा करो। फिर उन्होंने कारायण की ओर मुंह करके कहा - “ तो भाकुटिक सेनापति , अब विलम्ब क्यों ? तू राजाज्ञा का पालन कर । ”

“ तो फिर ऐसा ही हो । ”उसने सैनिकों को संकेत किया और वे राजा- रानी के अश्वों को घेरकर चल दिए । दास -दासी खड़े रोते रहे । उस समय प्रतीची दिशा मांग में सिन्दूर भरे कौसुम्बिक चीनांशुक पहने वधूटी - सी प्रतीत हो रही थी । सूर्यकुल - प्रदीप महाराज प्रसेनजित्, मागध-विजयी, पांच महाराज्यों के अधिपति , अर्द्ध- शताब्दी तक लोकोत्तर वैभव भोगकर आज दिनांत में राज्यश्री भ्रष्ट हो अपने ही सेवकों द्वारा बन्दी होकर अदृष्ट विविध और नियतिवश अज्ञात दिशा को चले जा रहे थे।

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